The Jengaburu Curse Review:

70 करोड़ की सीरीज में गिनाने लायक सात बातें भी नहीं, सोनी लिव का अभिशाप बनी सीरीज

हिंदी फिल्म जगत की धुरी समझे जाने वाले शहर मुंबई में अपना बसेरा किए

बिना इस लोक में अपना नाम बनाने वाले चंद फिल्मकारों में नील माधव पांडा का नाम शुमार है। सामाजिक हलचल उनका प्रिय विषय है।

बाल श्रम पर बनी उनकी फिल्म ‘आई एम कलाम’ को रिलीज हुए

13 साल हो चुके हैं। फिर शौच समस्या पर उनकी एक फिल्म आई ‘हल्का’ कोई पांच साल पहले। बीच में वह ‘कौन कितने पानी में’ और ‘कड़वी हवा’ भी बना चुके हैं

सोनी एंटरटेनमेंट जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को भारत जैसे चर्चित देश के

पर्यावरण में साजिश की कहानी दिखे तो उसकी दिलचस्पी तो जागेगी ही। जाहिर है कि ऐसे किसी विषय को बातचीत में ही बेच देना किसी भी फिल्मकार के लिए बाएं हाथ का खेल है।

मुंबई में चर्चा तो यही है कि इस सीरीज के सात एपिसोड के लिए

नील को सोनी लिव से कोई 70 करोड़ रुपये मिले हैं, ये चर्चा अली अब्बास जफर की फिल्म ‘ब्लडी डैडी’ का बजट 170 करोड़ रुपये होने जैसी हवा हवाई भी हो सकती है

लेकिन, अगर इसमें वाकई कुछ दम है तो फिर ये ओटीटी कारोबार को

लगनी शुरू हो चुकी दीमक की शुरुआत भी हो सकती है। औसतन 45 मिनट के हर एपिसोड की सात एपिसोड वाली ये सीरीज उत्सुकता जगाती है लेकिन सीरीज देखना शुरू करते ही ये सारा जोश पहले एपिसोड के आखिर तक आते आते सुस्त पड़ने लगता है।

नील माधव पांडा बेहतरीन निर्देशक हैं, इसमें कोई शक नहीं।

लेकिन, किसी भी कहानी को रुचिकर तरीके से कहने के लिए एक थ्रिलर में जो बातें जरूरी होती हैं, वे वेब सीरीज ‘द जेंगाबुरु कर्स’ में मिसिंग हैं। नक्सल प्रभावित एक इलाके में एक पर्यावरणविद के मारे जाने की खबर उसकी लंदन में काम कर रही बेटी को मिलती है।

बेटी भागकर आती है। पता चलता है कि जो शव मिला है वह किसी और का है।

उसके पिता के दोस्त बेटी की मदद के लिए आगे आते हैं। दोनों मिलकर खोजबीन शुरू करते हैं तो बताया जाता है कि उसका नक्सलियों के नेता ने अपहरण कर लिया है। कहानी के बीच में एक चिकित्सक है जो सपत्नीक नक्सलियों के सेवा में लगा हुआ है।